यदि हम हिन्दी साहित्य को समुचित परिप्रेक्ष्य में समझना चाहें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि इसका इतिहास अत्यन्त विस्तृत, समृद्ध और प्राचीन है। सुप्रसिद्ध भाषा वैज्ञानिक डॉ. हरदेव बाहरी के अनुसार हिन्दी का आरम्भ वस्तुतः वैदिक काल से माना जा सकता है। उनके शब्दों में, “वैदिक भाषा ही हिन्दी है।” दुर्भाग्यवश हिन्दी भाषा को हर युग में नया नाम मिलता रहा — वैदिक, संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और अन्ततः हिन्दी।
यह तर्क कि वैदिक संस्कृत और आधुनिक हिन्दी में अन्तर है, आलोचकों द्वारा बारम्बार प्रस्तुत किया जाता है। परन्तु यह अन्तर अन्य प्राचीन भाषाओं — जैसे हिब्रू, रूसी, तमिल आदि — में भी विद्यमान है, फिर भी उनके नाम नहीं बदले गए। इसके विपरीत, हिन्दी के हर युग में उसकी रूपान्तरित भाषा को नया नाम दे दिया गया।
हिन्दी भाषा की उत्पत्ति और साहित्यिक प्रारम्भ
हिन्दी भाषा का साहित्यिक आविर्भाव अपभ्रंश की अन्तिम अवस्था से स्वीकार किया जाता है। सातवीं-आठवीं शताब्दी से ही अपभ्रंश में पद्य-रचना आरम्भ हो चुकी थी। ये रचनाएँ धार्मिक, नीति और उपदेश प्रधान थीं। साथ ही, राजाश्रय प्राप्त कवियों ने नीति, शृंगार, शौर्य और पराक्रम का वर्णन भी किया। यह परम्परा आगे चलकर ‘प्राकृताभास हिन्दी’ तक पहुँची, जिसे विद्यापति ने “देशी भाषा” कहा है।
हिन्दी साहित्य के इतिहास-लेखन की परम्परा
हिन्दी साहित्य के इतिहास को व्यवस्थित रूप से शब्दबद्ध करने का कार्य उन्नीसवीं शताब्दी से आरम्भ हुआ। इसके प्रमुख इतिहासकार और ग्रन्थ निम्नलिखित हैं:
- गार्सा द तासी (1839) – हिन्दी साहित्य के पहले इतिहासकार (फ्रेंच में)
- रामचन्द्र शुक्ल (1929) – हिन्दी साहित्य का इतिहास
- हजारीप्रसाद द्विवेदी, रामकुमार वर्मा, डॉ. नगेन्द्र, बच्चन सिंह, राजेन्द्र प्रसाद सिंह – जिनकी कृतियाँ बीसवीं सदी के विचारप्रधान और समालोचनात्मक विमर्श को विस्तार देती हैं।
विकास के कालखंड
हिन्दी साहित्य को सामान्यतः पाँच प्रमुख कालों में विभाजित किया गया है:
1. आदिकाल (1050–1375 ई.)
इस काल में वीरगाथा काव्य प्रमुख था, जिसे रासो कहा गया। चन्दबरदाई का पृथ्वीराज रासो, नरपति नाल्ह का बीसलदेव रासो, और विद्यापति की पदावली इस युग की महत्त्वपूर्ण रचनाएँ हैं। भाषा डिंगल, पिंगल और पुरानी हिन्दी रूपों में थी।
2. भक्तिकाल (1375–1700 ई.)
भक्ति आंदोलन की प्रतिक्रिया में यह काल भारतीय समाज में आध्यात्मिक और सामाजिक जागरण का प्रतीक बना। इस काल की दो मुख्य धाराएँ थीं:
- निर्गुण भक्ति: ज्ञानाश्रयी (कबीर, रैदास), प्रेमाश्रयी (जायसी, कुतुबन)
- सगुण भक्ति: रामभक्ति (तुलसीदास), कृष्णभक्ति (सूरदास, मीरा)
यह युग धार्मिक ही नहीं, मानवीय संवेदनाओं की भी चरम अभिव्यक्ति का काल है। इसी कारण इसे हिन्दी काव्य का स्वर्ण युग कहा गया।
3. रीतिकाल (1700–1900 ई.)
इस काल में दरबारी संस्कृति और काव्यशास्त्र की रीति पर आधारित काव्य फला-फूला। शृंगार रस प्रधान, लक्षणग्रंथ आधारित और राजाश्रयी कवियों द्वारा लिखा गया काव्य रीतिकाव्य कहलाया। आचार्य केशवदास (रसिकप्रिया, कविप्रिया) इस युग के अग्रदूत थे। बोधात्मकता के स्थान पर अलंकारिकता को प्राथमिकता दी गई।
4. आधुनिक काल (1900–1940 ई.)
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र इस काल के अग्रणी लेखक रहे। सामाजिक सुधार, देशभक्ति, जागरण और नवचेतना साहित्य की मुख्य प्रवृत्तियाँ रहीं। खड़ी बोली को काव्य और गद्य दोनों में प्रतिष्ठा मिली। गद्य विधाएँ जैसे निबन्ध, उपन्यास, कहानी, नाटक आदि सशक्त रूप में उभरीं। मैथिलीशरण गुप्त, प्रेमचन्द, जयशंकर प्रसाद जैसे रचनाकारों ने नई परम्पराओं की नींव रखी।
5. छायावाद और उसके बाद (1940–वर्तमान)
छायावाद ने काव्य को भावप्रधान बनाया। इसकी विशेषताएँ थीं — व्यक्तिवाद, प्रकृतिप्रियता, सौंदर्यबोध और आत्माभिव्यक्ति। जयशंकर प्रसाद, निराला, पन्त, महादेवी इसके स्तम्भ रहे।
बाद में प्रगतिवाद आया, जिसमें समाजवाद और यथार्थवाद की प्रमुखता रही। यशपाल, नागार्जुन, रामविलास शर्मा इसके प्रतिनिधि रहे।
इसके साथ ही अज्ञेय के नेतृत्व में नए प्रयोगवादी आंदोलन (नई कविता, नई कहानी) ने मनोविश्लेषण और आत्मचेतना के प्रयोगों के माध्यम से साहित्य को नया रूप प्रदान किया।
नवीन परिप्रेक्ष्य और समकालीन रुझान
वर्तमान में हिन्दी साहित्य का परिदृश्य बहुआयामी और बहुविध हो चुका है। दलित साहित्य, स्त्री साहित्य, सबाल्टर्न साहित्य जैसी धाराएँ साहित्यिक विमर्श को नई दिशा दे रही हैं। राजेन्द्र प्रसाद सिंह द्वारा प्रस्तुत “हिन्दी साहित्य का सबाल्टर्न इतिहास” जैसी कृतियाँ हिन्दी साहित्य की परम्परागत धारणाओं को चुनौती देती हैं।
निष्कर्ष
हिन्दी साहित्य की यात्रा वैदिक संस्कृत से लेकर आधुनिक मनोविश्लेषण और समकालीन विमर्शों तक एक जीवंत परम्परा की कहानी है। यह न केवल भाषा का विकास है, बल्कि समाज, संस्कृति, और व्यक्ति की चेतना का निरन्तर परिवर्तित होते रहने वाला बौद्धिक दस्तावेज भी है। इसका सम्यक अध्ययन हमें न केवल अपने अतीत की गहराइयों में झाँकने देता है, बल्कि वर्तमान और भविष्य की दिशाओं को भी पहचानने में सहायक होता है।
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