बिहार का लोक नृत्य : नृत्य एक ऐसी सार्वभौमिक कला है, जो मानव के अंतर्मन की भावनाओं को सजीव रूप में अभिव्यक्त करती है। यह केवल शरीर की गति मात्र नहीं, अपितु संस्कृति, परंपरा और समाज के सामूहिक अनुभवों की सशक्त प्रस्तुति है। भारत जैसे सांस्कृतिक दृष्टि से समृद्ध देश में लोक नृत्य की विविधता अत्यंत अद्भुत है। बिहार, जो अपनी प्राचीन सांस्कृतिक विरासत के लिए प्रसिद्ध है, यहाँ की लोक कलाओं में लोक नृत्य का विशेष स्थान है।
प्राचीन बिहार में नृत्य की परंपरा
बिहार का नृत्य इतिहास अत्यंत प्राचीन है। बुद्धकालीन बिहार में राजगीर और वैशाली जैसे नगरों से नर्तकियों और गायिकाओं की उपस्थिति के प्रमाण मिलते हैं। इन नगरों को ‘नगरशोभिनी’ कहा जाता था, जो यह दर्शाता है कि नृत्य और संगीत वहाँ के सामाजिक जीवन का अभिन्न अंग थे। वैशाली की राजनर्तकी आम्रपाली का उल्लेख महात्मा बुद्ध से दीक्षा प्राप्त करने के प्रसंग में किया जाता है, जो यह प्रमाणित करता है कि लोक नृत्य और समाज में उसकी भूमिका अत्यंत गहन रही है।
बिहार के प्रमुख लोक नृत्य
बिहार में विविध क्षेत्रों और समुदायों के अनुसार विभिन्न प्रकार के लोक नृत्य प्रचलित हैं। ये नृत्य सामाजिक, धार्मिक, कृषि और उत्सवों के अवसर पर किए जाते हैं।
1. जट-जतिन नृत्य (Jat-Jatin)
यह बिहार के उत्तरी भाग, विशेषकर मिथिला क्षेत्र का सबसे लोकप्रिय लोक नृत्य है। इसमें एक पुरुष (जट) और एक महिला (जतिन) द्वारा नृत्य किया जाता है, जो दूर काम करने जाने वाले पति की कहानी दर्शाता है। यह नृत्य गरीबी, दुख और पति-पत्नी के बीच के प्रेम को प्रदर्शित करता है।
2. झुमर नृत्य (Jhumar)
यह बिहार की ग्रामीण महिलाओं द्वारा किया जाने वाला एक पारंपरिक लोक नृत्य है। इस नृत्य का कोई निश्चित अवसर या त्योहार नहीं है – यह किसी भी समय, किसी भी अवसर पर अपनी भावनाओं को व्यक्त करने के लिए किया जा सकता है।
3. बिदेसिया नृत्य (Bidesia)
यह बिहार के भोजपुरी भाषी क्षेत्रों में प्रचलित एक अत्यंत लोकप्रिय लोक रंगमंच नृत्य है। भिखारी ठाकुर को इस नृत्य शैली का जनक माना जाता है। यह समाज में व्याप्त विरोधाभासी मुद्दों को उठाता है और सामाजिक सुधार का माध्यम है।
4. झिझिया नृत्य (Jhijhiya)
यह नृत्य मिथिला क्षेत्र में दुर्गा पूजा के दौरान किया जाता है, न कि नवरात्र में। इसमें महिलाएं अपने सिर पर छेद वाले मिट्टी के बर्तन रखती हैं जिसके अंदर दीया जलता है। यह देवी लक्ष्मी, पार्वती और सरस्वती की पूजा के लिए किया जाता है, न कि केवल मातृशक्ति की उपासना के लिए।
5. कर्मा नृत्य (Karma)
यह आदिवासी समुदाय का एक अत्यंत महत्वपूर्ण सामूहिक नृत्य है। यह विशेष रूप से कृषि-संबंधी त्योहारों, जैसे फसल की बुआई और कटाई के समय, कर्म देवता की पूजा के अवसर पर किया जाता है। पुरुष और महिलाएं मिलकर वाद्य यंत्रों के साथ समूह में नाचते हैं।
6. जुमरी/जुमारी नृत्य (Jumari/Jumri)
यह नृत्य वैवाहिक खुशी का प्रतीक है और इसे विवाह के सांस्कृतिक नृत्य के रूप में माना जाता है। यह गुजरात के गरबा नृत्य के समान है और मांगलिक अवसरों पर किया जाता है।
7. कजरी नृत्य (Kajri)
यह बिहार के भोजपुरी भाषी क्षेत्रों में लोकप्रिय है। यह वर्षा ऋतु का नृत्य है जो अक्सर एक महिला की अपने प्रेमी के लिए तड़प को दर्शाता है जब काले मानसूनी बादल गर्मियों के आकाश में छाए रहते हैं।
8. सोहर-खिलोना नृत्य (Sohar-Khilona)
यह नृत्य बच्चे के जन्म और मंगल अवसरों पर किया जाता है। इसमें खुशी और उत्सव की भावना होती है।
9. डोमकच नृत्य (Domkach)
यह एक पारंपरिक नृत्य है जो विभिन्न सामुदायिक अवसरों पर किया जाता है।
10. कठघोड़वा नृत्य (Kath Ghorwa)
इस नृत्य में लकड़ी, बाँस और रंग-बिरंगे वस्त्रों से बने कृत्रिम घोड़ों के माध्यम से नृत्य प्रस्तुत किया जाता है। यह मुख्यतः विवाह जैसे उत्सवों में किया जाता है, जिसमें नर्तक घोड़े के आकार के ढाँचे को पहन कर अभिनयात्मक शैली में नृत्य करते हैं।
निष्कर्ष
बिहार के लोक नृत्य न केवल मनोरंजन का साधन हैं, बल्कि यह राज्य की संस्कृति, परंपरा और सामूहिक जीवन दृष्टिकोण का जीवंत दस्तावेज हैं। इन नृत्यों में क्षेत्रीय विविधता के साथ-साथ सामाजिक समरसता, धार्मिक भावना, कृषि जीवन और लोकसंवेदना का गहन प्रभाव दिखाई देता है।
बिहार के लोक नृत्य हमें यह सिखाते हैं कि संस्कृति की आत्मा जनमानस में बसती है, और यही लोक नृत्य उस आत्मा को स्पंदन प्रदान करते हैं।