॥ दोहा॥
देवि पूजित, नर्मदा, महिमा बड़ी अपार ।
चालीसा वर्णन करत, कवि अरु भक्त उदार॥
इनकी सेवा से सदा, मिटते पाप महान ।
तट पर कर जप दान नर, पाते हैं नित ज्ञान ॥
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॥ चौपाई ॥
जय-जय-जय नर्मदा भवानी, तुम्हरी महिमा सब जग जानी ।
अमरकण्ठ से निकली माता, सर्व सिद्धि नव निधि की दाता ।
कन्या रूप सकल गुण खानी, जब प्रकटीं नर्मदा भवानी ।
सप्तमी सुर्य मकर रविवारा, अश्वनि माघ मास अवतारा ॥
वाहन मकर आपको साजैं, कमल पुष्प पर आप विराजैं ।
ब्रह्मा हरि हर तुमको ध्यावैं, तब ही मनवांछित फल पावैं ।
दर्शन करत पाप कटि जाते, कोटि भक्त गण नित्य नहाते ।
जो नर तुमको नित ही ध्यावै, वह नर रुद्र लोक को जावैं ॥
मगरमच्छा तुम में सुख पावैं, अंतिम समय परमपद पावैं ।
मस्तक मुकुट सदा ही साजैं, पांव पैंजनी नित ही राजैं ।
कल-कल ध्वनि करती हो माता, पाप ताप हरती हो माता ।
पूरब से पश्चिम की ओरा, बहतीं माता नाचत मोरा ॥
शौनक ऋषि तुम्हरौ गुण गावैं, सूत आदि तुम्हरौं यश गावैं ।
शिव गणेश भी तेरे गुण गवैं, सकल देव गण तुमको ध्यावैं ।
कोटि तीर्थ नर्मदा किनारे, ये सब कहलाते दु:ख हारे ।
मनोकमना पूरण करती, सर्व दु:ख माँ नित ही हरतीं ॥
कनखल में गंगा की महिमा, कुरुक्षेत्र में सरस्वती महिमा ।
पर नर्मदा ग्राम जंगल में, नित रहती माता मंगल में ।
एक बार कर के स्नाना, तरत पिढ़ी है नर नारा ।
मेकल कन्या तुम ही रेवा, तुम्हरी भजन करें नित देवा ॥
जटा शंकरी नाम तुम्हारा, तुमने कोटि जनों को है तारा ।
समोद्भवा नर्मदा तुम हो, पाप मोचनी रेवा तुम हो ।
तुम्हरी महिमा कहि नहीं जाई, करत न बनती मातु बड़ाई ।
जल प्रताप तुममें अति माता, जो रमणीय तथा सुख दाता ॥
चाल सर्पिणी सम है तुम्हारी, महिमा अति अपार है तुम्हारी ।
तुम में पड़ी अस्थि भी भारी, छुवत पाषाण होत वर वारि ।
यमुना मे जो मनुज नहाता, सात दिनों में वह फल पाता ।
सरस्वती तीन दीनों में देती, गंगा तुरत बाद हीं देती ॥
पर रेवा का दर्शन करके, मानव फल पाता मन भर के ।
तुम्हरी महिमा है अति भारी, जिसको गाते हैं नर-नारी ।
जो नर तुम में नित्य नहाता, रुद्र लोक मे पूजा जाता ।
जड़ी बूटियां तट पर राजें, मोहक दृश्य सदा हीं साजें ॥
वायु सुगंधित चलती तीरा, जो हरती नर तन की पीरा ।
घाट-घाट की महिमा भारी, कवि भी गा नहिं सकते सारी ।
नहिं जानूँ मैं तुम्हरी पूजा, और सहारा नहीं मम दूजा ।
हो प्रसन्न ऊपर मम माता, तुम ही मातु मोक्ष की दाता ॥
जो मानव यह नित है पढ़ता, उसका मान सदा ही बढ़ता ।
जो शत बार इसे है गाता, वह विद्या धन दौलत पाता ।
अगणित बार पढ़ै जो कोई, पूरण मनोकामना होई ।
सबके उर में बसत नर्मदा, यहां वहां सर्वत्र नर्मदा ॥
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॥ दोहा ॥
भक्ति भाव उर आनि के, जो करता है जाप ।
माता जी की कृपा से, दूर होत संताप॥
भगवद गीता चालीसा (Bhagavad Geeta Chalisa)
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