Supreme Court of India ने 20 नवंबर 2025 को यह स्पष्ट किया कि राज्य विधायिकाओं द्वारा पारित बिलों के संबंध में Governor of a State तथा Droupadi Murmu द्वारा प्रस्तुत किए गए संदर्भ (प्रेसिडेंशियल रिफरेंस) में ये तय हुआ कि इनके लिए सख्त समय-सीमा निर्धारित नहीं की जा सकती।
प्रकरण: संवैधानिक पृष्ठभूमि
भारत के संविधान में राज्य विधायिकाओं द्वारा पास किए गए बिलों को राज्यपाल के समक्ष प्रस्तुत करने के बाद उनके पास तीन विकल्प होते हैं:
- सहमति देना,
- सहमति देने से मना करते हुए विधान सभा को बिल वापस करना,
- या उसे President of India के समक्ष भेजना।
इस प्रक्रिया में समय-सीमा न होने के कारण कभी-कभी बिल लंबित रह जाते थे। इसी को लेकर अप्रैल 2025 में State of Tamil Nadu v. Governor of Tamil Nadu नामक मामले में कोर्ट ने समय-सीमा निर्धारित की थी।
नवंबर 2025 में राष्ट्रपति ने इस प्रश्न पर संविधान की सलाह माँगी (अनुच्छेद 143 के तहत) कि क्या न्यायालय राज्यपाल या राष्ट्रपति के समक्ष बिलों की स्वीकृति के लिए समय-सीमा तय कर सकती है।
सुप्रीम कोर्ट का निर्णय एवं अहम बिंदु
- पांच न्यायाधीशीय संविधानपीठ ने फैसला किया कि ऐसा कोई संवैधानिक प्रावधान नहीं है जिसमें राज्यपाल या राष्ट्रपति को बिलों पर कार्रवाई के लिए समय निर्धारित किया गया हो।
- न्यायालय ने यह भी कहा कि “डीड असेंट” (माना हुआ स्वीकृति) की व्यवस्था संविधान-प्रणाली और शक्ति-विभाजन के सिद्धांतों के विरुद्ध है।
- हालांकि, इसके साथ यह संकेत भी दिया गया कि यदि राज्यपाल बहुत लंबे समय तक, बिना किसी तर्क के, बिलों पर कार्रवाई नहीं करते तो न्यायालय सीमित हस्तक्षेप कर सकता है और निर्देश दे सकता है कि कार्रवाई समय-सीमा के भीतर की जाए।
संभावित प्रभाव एवं आगे की दिशा
यह निर्णय राज्य सरकार-राज्यपाल संबंध, विधान प्रक्रिया तथा न्याय-कार्यपालिका के बीच संतुलन को लेकर अहम है।
- इससे राज्य विधायिकाओं द्वारा पारित बिलों की स्वीकृति प्रक्रिया में राज्यपाल की संवैधानिक स्वायत्तता स्पष्ट हुई।
- साथ ही यह बात भी स्थापित हुई कि न्याय-योजना प्रक्रिया में अनुचित विलंब को न्यायालय अनदेखा नहीं कर सकती।
- भविष्य में, यदि बिलों के लंबित रहने की स्थिति बढ़ती है, तो न्यायालय यह जांच सकती है कि क्या विलंब “अन्यायपूर्ण, अस्पष्ट तथा अनियंत्रित” था और तब सीमित निर्देश जारी कर सकती है।
निष्कर्ष
संविधान-पीठ ने यह स्पष्ट किया है कि राज्यपाल या राष्ट्रपति द्वारा बिलों पर स्वीकृति देने के लिए न्यायालय पूरी तरह समय-सीमा निर्धारित नहीं कर सकती। लेकिन, एक संवैधानिक व्यवस्था के तहत यह भी सुनिश्चित हुआ है कि कोई भी संवैधानिक कर्ता बिल्कुल अनिश्चितकाल तक निर्णय टाल नहीं सकता। इस निर्णय से भारत में विधान प्रक्रिया, संवैधानिक संतुलन तथा न्याय-शासन की दिशा में महत्वपूर्ण प्रस्थान बिंदु बन गया है।